नैशनल इन्वेस्टीगेशन एजेंसी (एनआईए) ने हाल ही में एक बम विस्फोट के लिए जिम्मेदार आतंकवादियों की खबर देने वालों को नकद ईनाम संबंधी विज्ञापन दिया था। विज्ञापन के मुताबिक, अगर आप एजेंसी को कोई ‘गोपनीय’ सूचना देना चाहते हैं तो उसके जीमेल अकाउंट पर ईमेल भेज सकते हैं। इस विज्ञापन ने स्पष्ट कर दिया कि इंटरनेट के जरिए गोपनीय सूचनाओं के आदान-प्रदान पर हमारी खुफिया एजेंसियों की जानकारी कितनी सीमित है!
अमेरिका की सीआईए और एनएसए के पूर्व कर्मचारी एडवर्ड स्नोडेन की तरफ से मई 2013 में किए गए खुलासों के बाद भी यदि कोई गुप्तचर या सुरक्षा एजेंसी जीमेल अकाउंट पर भेजी गई सूचनाओं को ‘गोपनीय’ मानकर चलती है, तो वह धन्य है। माइक्रोसॉफ्ट, गूगल, याहू और फेसबुक जैसी अमेरिकी कंपनियों के सर्वरों पर मौजूद इंटरनेट संदेशों को जिस तरह अमेरिकी खुफिया एजेंसियों को मुहैया कराया जाता है, उसके बाद कम से कम राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से संवेदनशील जानकारी को जीमेल, याहू या हॉटमेल (अब आउटलुक) पर मंगवाने की गलती तो बिल्कुल नहीं की जा सकती।
लेकिन भारत में विशाल सरकारी इंटरनेट तंत्र की मौजूदगी के बावजूद बड़ी संख्या में सरकारी विभाग, एजेंसियाँ और अधिकारी न सिर्फ निजी अमेरिकी कंपनियों द्वारा मुहैया कराई गई ईमेल सेवाओं का धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहे हैं, बल्कि बहुत से महत्वपूर्ण संस्थानों तथा विभागों की वेबसाइटें भी सरकारी तंत्र से बाहर होस्ट की गई हैं। हाल ही में दिल्ली हाईकोर्ट के न्यायाधीशों बीडी अहमद ओर विभु बकरू की खंडपीढ ने इस लापरवाही पर गहरी नाराजगी जताई है। अदालत में कहा गया कि जब सरकारी तंत्र को आईटी से संबंधित सुविधाएँ मुहैया कराने के लिए देश के कोने-कोने में नैशनल इन्फॉरमेटिक्स सेंटर (एनआईसी) का नेटवर्क मौजूद है तो सार्वजनिक दस्तावेज अधिनियम 1993 की धारा चार का उल्लंघन करते हुए इस तरह खुले आम विदेशी सर्वरों पर आधारित ईमेल सेवाओं का इस्तेमाल कैसे किया जा रहा है!
आएगी नई ईमेल नीति
बहरहाल, सार्वजनिक बयानों के इतर केंद्र सरकार के तकनीकी तंत्र में सूचनाओं की सुरक्षा को लेकर चिंता का भाव है। हाल ही में खबर आई थी कि केंद्रीय कर्मचारियों को ऐसे निर्देश दिए जाने वाले हैं कि वे सिर्फ और सिर्फ एनआईसी की ईमेल सेवा का ही इस्तेमाल करें। जल्दी ही एक राष्ट्रीय ईमेल नीति भी घोषित होने जा रही है। विदेशों में कार्यरत भारतीय सरकारी कर्मचारियों को तो इस बारे में स्पष्ट दिशानिर्देश दिए भी जा चुके हैं कि वे सिर्फ एनआईसी या एरनेट जैसे सरकारी तकनीकी संस्थानों की सेवाओं का ही इस्तेमाल करें। उनके सर्वर न सिर्फ भारत में ही स्थापित हैं बल्कि वे हमारे देसी तकनीकी तंत्र की देखरेख में ही रहते हैं।
हालाँकि इस बात पर विवाद है कि एनआईसी के सर्वर खुद कितने सुरक्षित या असुरक्षित हैं। एनआईसी पर होस्ट की गई वेबसाइटें गाहे-बगाहे देसी-विदेशी हैकरों के निशाने पर रही हैं। पिछले तीन साल में एक हजार से ज्यादा सरकारी वेबसाइटें हैक हुई हैं जिनमें से ज्यादातर एनआईसी के सर्वरों पर ही होस्ट की गई हैं। केंद्रीय जाँच ब्यूरो (सीबीआई) तक की वेबसाइट जो कि एनआईसी सर्वर पर होस्ट की गई थी, को कुछ महीने पहले पाकिस्तानी हैकरों ने हैक कर लिया था। चीनी, ब्राजीली, अल्जीरियाई और दूसरी कई राष्ट्रीयताओं वाले हैकरों की कृपा-दृष्टि एनआईसी पर रही है। यहाँ तक कि खुद पीएमओ, विदेश मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय की वेबसाइटें तक सुरक्षित नहीं हैं।
ऐसे में सिर्फ सरकारी ईमेल और वेबसाइटों को भारतीय तथा सरकारी सर्वरों पर ले जाना मात्र संवेदनशील तथा गोपनीय सूचनाओं की सुरक्षा की गारंटी नहीं है। हालाँकि यह उस परिस्थिति से अवश्य बेहतर है जब जीमेल, याहू आदि पर आने वाली हर एक मेल की एक प्रति विदेशी खुफिया एजेंसियों को मिलती है। लेकिन अगर भारत सरकार अपने संदेशों को गोपनीय बनाए रखने और खुफिया आँखों की कुदृष्टि से बचाए रखने के लिए सतर्क है तो अपने तकनीकी सेवा तंत्र को अभेद्य बनाने की दिशा में अब और देरी नहीं की जानी चाहिए। यह भी देखा जाना जरूरी है कि आखिर क्यों सरकारी अधिकारी और संस्थान निजी तथा विदेशी इंटरनेट कंपनियों की सेवाओं को अपनाना पसंद करते हैं! इसके कारण बहुत साफ हैं-
– प्रयोग की सरलता
– निःशुल्क उपलब्ध होना
– संदेशों को सहेजने के लिए प्रचुर स्पेस मौजूद होना
– अकाउंट बनाने के लिए सरकारी औपचारिकताओं की जरूरत नहीं
– सेवाओं की तेज रफ्तार
– कंप्यूटर के अतिरिक्त अन्य गैजेट्स पर भी प्रयोग संभव
– ईमेल के साथ-साथ चैट, सर्च जैसी अन्य सेवाओं की मौजूदगी
– एक से अधिक अकाउंट बनाने की आजादी
एनआईसी की सेवाएँ
एनआईसी की सेवाएँ पाने की प्रक्रिया समय-साध्य और औपचारिक है। ऊपर से वहाँ मिलने वाली सुविधाएँ सीमित और यूज़र के अधिकार भी सीमित हैं। विशेष आयोजनों के समय बनाई जाने वाली वेबसाइटों तथा आकस्मिक आवश्यकता की स्थिति में ईमेल सेवाओं के लिए एनआईसी के पास जाने की बजाए अधिकारी जीमेल तथा निजी सेवा प्रदाताओं की शरण लेना आसान और बेहतर समझते हैं। एनआईसी अन्य सरकारी तंत्रों की तरह ढीला-ढाला तंत्र बन चुका है, जहाँ औपचारिकताओं के कई स्तर तो हैं ही, सेवाएँ मुहैया कराने में चुस्ती या सकारात्मकता का भी अभाव है। प्रायः सरकारी विभागों द्वारा शिकायत की जाती है कि एनआईसी के माध्यम से वेबसाइट बनवाने या अन्य तकनीकी सेवाएँ पाने की प्रक्रिया में बहुत समय आता है और किस्म-किस्म की रुकावटें सामने आती हैं। इन सेवाओं का स्तर, सुरक्षा और उनमें रखी गई सामग्री को बार-बार अद्यदन (अपडेट) करने में आसानी को लेकर भी निराशा का भाव रहता है। एनआईसी को अधिक चुस्त-दुरुस्त, आधुनिक, पेशेवराना संस्थान में बदले बिना वह अपने प्रयोक्ताओं की पहली पसंद नहीं बन सकेगा। यह संस्थान देश भर का बोझ भी संभाल रहा है, जिसके प्रयोक्ताओं में केंद्र से लेकर राज्य सरकारों के संस्थान और स्वायत्त संस्थान भी शामिल हैं। इस बोझ को कम करने या बाँटने का भी कोई रास्ता निकाला जाना चाहिए।
संदेशों को सुरक्षित बनाने के लिए विदेशी कंपनियों के सर्वरों को भारत मंगवाए जाने का विकल्प भी है। गूगल, याहू आदि पर इस दिशा में भी दबाव बनाया जा रहा है। सरकार को ब्लैकबेरी जैसी कंपनियों को सहमत कराने में सफलता भी मिली है। अलबत्ता, इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि भारत आने के बाद भी जीमेल, याहू, माइक्रोसॉफ्ट आदि की सेवाएँ विदेशी निगरानी से पूरी तरह मुक्त रहेंगी। हाँ, यह जरूर हो सकता है कि तब वे भारतीय एजेंसियों की निगरानी में भी आ जाएँ।