बुधवा उरांव की याद में बुडमु चौक के पास प्रतिमा का अनावरण : पुष्कर महतो
रांची: झारखंड अलग राज्य के आंदोलन को सफल एवं सार्थक बनाने के लिए आंदोलनकारियों ने अपनी ओर से कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी। आंदोलन के प्रत्येक चरण को सफल बनाने के लिए अपना सर्वत्र दांव पर लगा देते थे। ऐसे ही झारखंड आंदोलनकारियों में एक प्रमुख नाम आता है रांची जिला के बुढ़मू प्रखंड के रहने वाले बुधवा उरांव का नाम आता है। जिन्होंने घूम घूम कर अखबार बेच बेच कर झारखंड आंदोलन को गतिमान बनाने व परिवार चलाने में लगाते थे।
80 के दशक से ही बोधुआ हो रहा हूं झारखंड अलग राज्य के आंदोलन में कूद पड़े थे। झारखंड मजदूर किसान संघ (झमकिस) बनने के बाद वे अगुवा युवा नेतृत्व कार्य के रूप में अपने मकसद व जिम्मेदारी से जुड़े रहे। आंदोलन में सक्रिय रहने के कारण बहुत जल्द ही पुलिस के नजरों मे चढ़ गए और इन्हें धर पक्कड़ के लिए तलाशी का अभियान शुरू कर दिया गया। जिसके कारण आंदोलन को गति देने के लिए कुछ दिनों के लिए उन्हें बुढ़मू क्षेत्र छोडकर मांडर इलाके में उन्हें भूमिगत भी रहना पड़ा। तब वे सुबह सुबह दूसरों के घरों में अखबार बेचकर अपनी जीविका निर्वाह करते थे । आर्थिक तंगी के बावजूद इनकी पत्नी मजबूत सहयोगी रही । मुरुपिरी के उसकू से मांडर 20 किलोमीटर तक बेटी को बेतरा कर माथे पर लकड़ी का बोझा बेचती थी, तब कहीं जाकर घर का चूल्हा जलता था। 40 साल की उम्र में ही उनकी पत्नी की बीमारी के वो बीच रास्ते में छोड़ कर चल दी,भगवान को प्यारी हो गई, इसके बाबजूद वे नहीं डिगे , और वे निरंतर जनहित और सामाजिक कार्य में जुटे रहे। 1990 के दशक में सामंती उत्पीड़न, जमीन मुक्ति और मजदुरी के सवाल पर जबरदस्त संघर्ष किए। राजनीतिक दादागिरी और पुलिस जुल्म और शोषण के बीच के नापाक रिश्ते के खिलाफ़ जागरूकता और संघर्ष को अपना अपना हथियार बनाए जिसके चलते बहुत कम समय में ही इनकी लोकप्रियता बढ़ ती गई। उनकी लोकप्रियता
सिर्फ आदिवासी समुदाय के बीच में ही नहीं बल्कि प्रखंड के सभी समुदायों के बीच सामान रूप से चर्चित हो गए। बुधवा उरांव सबको समान रूप से सम्मान देते, सबको साथ लेकर चलते थे।
इनकी इसी लोकप्रियत के कारण मात्र ढ़ाई सौ रुपए के खर्च व लाल चाय में खर्च कर वे सामंत शाही व धनबल की शक्तियों को परास्त कर मुखिया पद में सर्वाधिक वोट से जीते। उनके जीत के जश्न में आम गरीब मजदूर किसान सभी शामिल हुए। उनके खुशियों का ठिकाना नहीं था। जब वे 21 अक्टूबर 2019 को गरीबों के लिए पेंशन के काम से बुड्मू प्रखंड आए थे। वे दुर्भाग्य से अचानक ह्रदय घात का शिकार हो गए, वे बेहोश होकर गिर गए। उन्हें जल्दी – जल्दी अस्पताल ले जाया गया। लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था। रास्ते में ही बुधवा उरांव की मौत हो गई, यह खबर सुनकर उनके सभी शुभचिंतक प्रेमी शोक में व्याकुल हो उठे। अपने लोकप्रिय जनप्रिय नेता का खोने का गम आज भी इस क्षेत्र के लोगों को है। 22 अक्टूबर को इनकी अंत्येष्ठि पैतृक गांव उसकू में हुई । अंतिम यात्रा में समाज के सभी तबकों के लोगों की बडी संख्या में भीड़ जुटी। एक एक कर सभी ने कांधे दिए और नम आंखों से उन्हें विदा किया। यह उनकी लोकप्रियता की झलक साफ़ दिख रही थी।
22 अक्तूबर 2021 को बुडमु के मुरुपिरी मोड़ में इनकी प्रतिमा स्थापति की जानी झारखंड आंदोलनकारी बुधवा उरांव की लोकप्रियता व प्रेरणा पुरुष के रूप में स्थापित करना है।