बोकारो से जय सिन्हा
बोकारो: दिल मे ज़ज़्बा अगर सेवा का हो कोई भी अड़चन आपका रास्ता नही रोक सकती। ज़ी हॉ हम बात कर रहे है नक्सली से शिक्षक बने परशुराम की। कभी गरीबों और वंचितों को उनका अधिकार दिलाने के छलावा में फस नक्सली संगठन से जुड़ गए थे परशुराम, परन्तु कुछ ही दिनों में ही इन्हें पता चल गया कि लूट खसूट के अलावा नक्सल की दुनियां में और कुछ भी नही है। जब पूरी तरह से नक्सली दुनिया से उनका मोहभंग हो गया तो वापस लौट आये समाज की मुख्यधारा में।
वापस आकर उन्होंने वर्ष 1992 में गरीब और वंचित वर्ग के बच्चों निशुल्क शिक्षा देना आरम्भ किया। पाँच वर्षों में उन्होंने झोपड़ीनुमा विद्यालय बनाकर विरसा मुंडा निशुल्क विद्यालय आरम्भ कर दी। इनकी नज़र वैसे बच्चों पर खास होती जो बाज़ारो में कचरा चुनने का काम करते थे, यहाँ पढ़ने वाले बच्चों में वैसे बच्चे भी शामिल है जिनके परिवार में दोनों वक़्त का भोजन भी मुश्किल से हो पाता तो उनको शिक्षा कहाँ से नसीब हो पाती। परशुराम वैसे बच्चों को ना सिर्फ निशुल्क शिक्षा दे रहे है वरन भिक्षाटन तथा समाज के सम्पन्न लोगों की मदद से बच्चों को पाठ्य सामग्री भी उपलब्ध कराते है। कोरोना काल मे भी इन्होंने इन गरीब बच्चों की पढ़ाई रुकने नही दी चार से पाँच बच्चों का समूह बनाकर उनके मुहल्ले में जाकर शिक्षा देते रहे।
वर्तमान में इस विद्यालय में कुल 123 बच्चे शिक्षा ग्रहण कर रहे है वही चार शिक्षक एवम शिक्षिकायें शामिल है, जिनका महीने के भुगतान की ज़िम्मेदारी एक समाजसेवी ने सम्हाल रखी है। पूरे जीवन के महत्वपूर्ण क्षण जनसेवा में लगा चुके परशुराम के इस ज़ज़्बे को देख यह साफ कहा जा सकता है कि अगर किसी के अंदर सेवा का भावना हो तो रास्ते बहुत है, उसी में से एक रास्ता चुना परशुराम ने भी गरीबों में शिक्षा के अलख जगाने का।