जब किसी राजनीतिक दल के द्वारा आयोजित सभाओं और रैलियों को देखती हूं तो राजेश जोशी की कविता ष् इत्यादि ष् की पंक्तियां स्मरण हो आती है । जिसमें कहा गया है. श् कुछ लोगों के नामों का उल्लेख किया गया था जिनके ओहदे थे ध् बाकी सब इत्यादि थे श् इत्यादि होने का दंश इस लोकतंत्र में हर आम आदमी सहता है – श् इत्यादि तादात में हमेशा ही ज्यादा होते थे ध् इत्यादि भाव.ताव करके सब्जी खरिदते थे और खाना – वाना खाकरध् खास लोगों के भाषण सुनने जाते थे ध् इत्यादि हर गोष्ठी में उपस्थिति बढाते थे ध् इत्यादि जुलूस में जाते थे तख्तियां उठाते थे नारे लगाते थे ध् इत्यादि लम्बी लाइनों मे लग कर मतदान करते थे ध् उन्हें लगातार ऐसा भ्रम दिया जाता था कि वे ही ध् इस लोकतंत्र में सरकार बनाते हैं ध् इत्यादि हमेशा ही आंदोलनों मे शामिल होते थे ध् इसलिए क्भी. कभी पुलिस् की गोली से मार दिये जाते थे श्
शायद यही नियति है लोकतंत्र में रह रहे आम जन की । अजीब विडम्बना है जिस जनता की बदौलत बडी. बडी सभाओं ध् रैलियों को सफल बनाया जाता है उसी जनता को इस सभाओं के आयोजन से असुविधाओं का सामना करना पडता है । तथाकथित वीण्आईण् पी की सुरक्षा के लिए पूरा इलाका अचानक पुलिस् छावनी में तब्दील कर दिया जाता है ।साफ सफाई से लेकर यातायात नियंत्रण तक की व्यवस्था को सुचारु रुप से चलाने के लिए जनता की सुविधा असुविधा को दरकिनार कर लोकतंत्र कहलाने वाले देश में लोक की उपेक्षा कर उन्हें मात्र भीड का हिस्सा बनने के लिए मजबूर कर दिया जाता है क्योंकि इस भीड के पास लोकतंत्र में आस्था बनाये रखने के अलावा दूसरा विकल्प है ही कहां । धूमिल के शब्दों में कहें – यह जनता ध् जनतंत्र में ध् उसकी श्रद्धा अटूट है ध् उसको समझा दिया गया है कि यहां ध् ऐसा जनतंत्र है जिसमें जिंदा रहने के लिए घोडे और घास को ध् एक जैसी छूट है ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण् कैसा झूठ है दरअसल अपने यहां जनतंत्र ध् एक ऐसा तमाशा है ध् जिसकी जान मदारी की भाषा है मदारी वे नेतागण है जो अपने वाकजाल से जनता को भ्रमित करते है अपने इशारों पर नचाते है और अपना स्वार्थ सधने के बाद भूल जाते है। जब कोई इस अराजक व्यवस्था से त्रस्त होकर आवाज उठाने का जोखिम उठाता है ए आंदोलन चलाता है तो सत्ता के बल पर उसे कुचल दिया जाता है । इसलिए सुविधाजीवी सिर्फ विमर्श को चुनता है चाय पानी पीता है बौद्धिक जुगाली करता है इसके बल पर सत्ता से सांठ.गांठ करके उनका हिस्सा बन बैठता है । यूं तो विमर्श ही आंदोलन को जन्म देते हैं लेकिन हर विमर्श आंदोलन नही बन पाता क्योंकि विमर्शों की भी अपनी राजनीति होती है । आंदोलन जोखिम की चीज है इसलिए विमर्श का विकल्प ज्यादा सरल है । लेकिन इसका अर्थ यह नही कि विमर्श न हो वास्तव में विमर्श ही है जो तटस्थ द्रष्टाओं को देश की दशा व दिशा जैसे प्रश्नों से जुझने के लिए चिंतन करने के लिए उकसाते है । धूमिल कहते हैं श् मैं रोज देखता हूं कि व्यवस्था की मशीन ध् का एक पुर्जा गरम होकर अलग छिटक गया है और ध् ठंडा होते ही ध् फिर कुर्सी से चिपक गया है ।श् कहने का अभिप्राय यह है कि आज के विमर्श सबको चमत्कृत और आंदोलित तो करते हैं लेकिन स्थायी विचार का सृजन करने में असफल रहते हैं । इन विमर्शों के पक्ष. विपक्ष में टीण्वी चैनलों पर लडते हैं ए ब्लाग लिखते हैं या फिर ट्वीट करते हैं या कहें मुक्ति और अधिकार की बात सब करते हैं लेकिन इस लोकतंत्र में आम जन के प्रति दायित्व और प्रतिबद्धता से विदकते हैं ।