प्रश्नोपनिषद में उल्लेख है – आदित्यो ह वै प्राण: अर्थात् सूर्य ही प्राण का उत्स है। ऋग्वेद के ऋषियों का भी वचन है – प्राण: प्रजानाम् उदयत्येष सूर्य: अर्थात् सूर्य से ही प्राण की धारा पृथ्वी पर प्रवाहित होती है।
कृतज्ञता प्रकट करना हिंदू संस्कृति का वैशिष्ट्य रहा है।
भगवान् सूर्य के इस महान उपकार के प्रत्युत्तर में वैदिक युग में हमारे ऋषि-मुनियों ने सूर्योपासना की जिस परंपरा का शुभारंभ किया था , सदियों बाद भी वह आज तक कायम है। मकर संक्रांति सूर्योपासना का ऐसा ऋतु-पर्व है , जो हमारे लौकिक जीवन को देव-जीवन की ओर मोड़ता है और हमारे भीतर शुभत्व और नवजीवन का बोध भरकर हमें चैतन्य , जागृत और जीवंत रूप से सक्रिय बनाता है।
हम सभी जानते हैं कि राशि बारह हैं – मेष , वृष , मिथुन , कर्क , सिंह , तुला , कन्या , वृश्चिक , धनु , मकर , कुम्भ तथा मीन। एक-एक महीने सूर्यदेव एक-एक राशि में प्रवेश करते हैं। इस दृष्टि से संक्रांति भी बारह हैं।
पूस माह के बाद सूर्यदेव धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करते हैं , इसलिए इस दिन को मकर संक्रांति कहते हैं। संक्रांति का अर्थ है – श्रेष्ठ क्रांति या उत्क्रांति अर्थात् एक स्तर से दूसरे स्तर में जाना। ” तमसो मा ज्योतिर्गमय ” के उद्घोष का प्रतीक है – मकर संक्रांति पर्व क्योंकि इसी दिन से अंधकार घटने लगता है और प्रकाश का बढ़ना प्रारंभ हो जाता है।
पुराणकार एवं ज्योतिषविद् कहते हैं कि जब दिवाकर (सूर्य) मकरस्थ होते हैं , तब सभी समय , सभी दिन एवं सभी स्थान शुभ हो जाते हैं। मकर संक्रांति के शुभ दिन से खरमास (पौष माह) में रुके हुए मंगल कार्य पुनः शुरू हो जाता है।
यह पर्व कहीं लोहड़ी, कहीं खिचड़ी, कहीं उत्तरायणी , कहीं संक्रांति , तो कहीं पोंगल के नाम से प्रचलित है।
लेखक: डॉ0 प्रभाकर कुमार