मातृ पितृ देवो भवः :- जीवन का सब कुछ सही चलता है जब तक पिता और माँ मतलब घर के मुखिया परिवार के साथ रहते है। माँ घर की देख रेख बच्चो का लालन पालन करती है, वही पिता एक सैनिक की तरह बच्चो के विकास को लेकर दिन रात मेहनत कर घर का खर्च निकालते है। बहुत ही आनंदमय जीवन इस परिवार का चलता है।बच्चो की पढ़ाई के समय माँ सुबह का नास्ता बनाकर टिफिन पैक कर तैयार करती है वही पिता बाहर स्कूल छोड़ने के लिये इंतज़ार करते है।स्कूल छोडने के बाद वह ऑफिस चले जाते है,लेकिन उनको टेंसन बना रहता है कि छुट्टी के समय बच्चो को लेने जाना है लेट न हो जाय वो भूखे होंगे।
बच्चो की पढ़ाई लिखाई से लेकर जबक्तक वह अपने पैरों पर खड़े नही होते तब तक पिता और माँ का कर्तव्य पूरा नही होता। उसके बाद भी बच्चों के लिए सुयोग्य कन्या की तलाश करते है।जब शादी विवाह बच्चो का हो जाता है तब जाकर यह अपने कर्तव्यों से उद्धार होते है। इतनी तकलीफों के बाद बच्चो को एक मुकाम तक पहुचा देते है।
दुर्भाग्य समझे या इस कड़ी को विवस्ता जब बच्चो का विवाह हो जाता है, उसके बाद बच्चो में समझदारी आ जाती है।वो पिता के कार्यो को नकार देते है, उनकी बातों को अनसुना कर उन्हें समझाने बैठते है। लेकिन उस समय भी पिता अपने बच्चों को माफ कर उनकी बातों को सुनते है।
समय के साथ साथ पिता और माँ की आयु बढ़ती जाती है और वो वृद्धा अवस्था मे चले जाते है।उसके बाद बेटों और बहुओं को वो भारी लगने लगते है। लेकिन उस वक्त भी पिता और माँ इन परिस्थितियों को समझ कर पोतों के साथ समय व्यतीत करते है, और उस दिन को याद करते है, जब वो अपने बेटों को खेलाया करते थे। जब माँ के गर्भ में बच्चा था तब पिता की उत्सुकता बढ़ जाती है, और माँ दर्द को भूल जाती है, यह सोचकर की बेटा होगा तो बुढापे का सहारा बनेगा।लेकिन ऐसा नही होता है, पुत्र को पत्नी, बच्चें दुनिया दारी प्रिय लगने लगते है।
धीरे-धीरे वो इस अवस्था मे पहुच जाते है कि अब वह दिन गिनने लगते है, और एक समय आता है कि वो स्वर्गीय हो जाते है। परिजन, बेटा, बहु सभी विलाप करते है।लेकिन अब कहा वह किसी के सुनते है। अब पछतात होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत।
उसके बाद जिसको हिन्दू रीति रिवाज में पगड़ी कहते है, बेटों के सिर पर बांधा जाता है और उन्हें जिम्मेदारी समझाया जाता है।उसके बाद घर की जिमेवारी बेटों पर आ जाती है।लेकिन जिस तरह से माता-पिता घर की एकता को बनाएं रखते है,बहुत आफत उनके जीवन मे आता है लेकिन घर को डगमगाने नही देते है। हर आफत विपत में अपने बच्चो का हौसाल बढ़ाते रहते है।
फिर उस पुत्र की पारी आती है , उसे वो सब दिखता है ,जब उसका पुत्र उसके साथ वैसा बर्ताव करता है।यह विधि का विधान है कि जस ”करनी तस भोगहि दाता”’ यह अब उसके साथ घटना घटती है तो वह सिर्फ उस पल को याद कर पछताता है।क्योंकि अब न माँ लौट कर आने वाली है और न पिता सिर्फ अब जीवन मे उस घटना को याद कर मन को कोसने के सिवा कुछ रह नही जाता है। बस अब उनके तस्वीरों को देख कर क्षमा मांगने के शिवा कुछ नही बच जाता है।
समाज मे ऐसी कुरीतियों को खत्म कर देना चाहिए और इसमे में बहु- बेटों को आगे आकर समाज मे एक नई मुहिम शुरू करना चाहिए।
कई माता- पिता पुत्र से प्रताड़ित होकर घर छोड़ जाते है, तो कई वृद्धा आश्रम के डोर ठक -ठकाते है, ऐसा न हो किसी परिवार में यह हम सब मनाते है, मातृ- पितृ देवो भवः को हम जग में सुनाते है।
लेखक: डाॅक्टर प्रभाकर कुमार
ऊपर के वक्तव्य लेखक के अपने हैं।