विचार
शिक्षा मनुष्य के व्यक्तित्व और व्यवहार का परिमार्जन कर उनके भीतर अच्छे विचारों का निर्माण करती है तथा जीवन के मार्ग को प्रशस्त करती है।
बेहतर समाज के निर्माण में सुशिक्षित नागरिक की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। आज के समय की सबसे बड़ी शक्ति ज्ञान ही है। ‘ज्ञान’ शब्द देखने में जितना छोटा है, उतनी ही व्यापकता लिए हुए है। ज्ञान का क्षेत्र बहुत विशाल है। यह जीवन-पर्यंत चलता है। आज वही देश सबसे कामयाब है जिसके पास ज्ञान की अद्भुत शक्ति है। यह ज्ञान ही है जो मनुष्य को अन्य जीव-जन्तुओं से श्रेष्ठ बनाता है। भारत की प्राचीनकालीन शिक्षा व्यवस्था देश में ही नहीं, समूचे विश्व में भी प्रसिद्ध थी।
चरित्र निर्माण, आध्यात्मिक ज्ञान के साथ-साथ व्यक्ति के सर्वागीण विकास के उद्देश्य पर आधारित शिक्षा प्रणाली की ख्याति चारों ओर फैली हुई थी । चीन, जापान, तिब्बत तथा लंका आदि देशों से यहां शिक्षार्थी ज्ञानार्जन हेतु आते थे। विभिन्न विषयों के विषय विशेषज्ञ आचार्यों के कारण नालन्दा, तक्षशिला एवं विक्रमशिला विश्वविद्यालय विश्व में सुविख्यात थे ।
इस तरह प्राचीन भारतीय शिक्षा अपने उद्देश्यों एवं व्यावहारिकता के कारण संसार में अनूठी थी। भारत के पास बौद्धिक अनुसंधान एवं मूल ग्रंथों के धरोहर की एक अत्यंत समृद्ध परंपरा रही है जो कि सदियों पुरानी है। भारतीय ज्ञान परंपरा अद्वितीय ज्ञान और प्रज्ञा का प्रतीक है जिसमें ज्ञान और विज्ञान, लौकिक और पारलौकिक, कर्म और धर्म तथा भोग और त्याग का अद्भुत समन्वय है।
ऋग्वेद के समय से ही शिक्षा प्रणाली जीवन के नैतिक, भौतिक, आध्यात्मिक और बौद्धिक मूल्यों पर केंद्रित होकर विनम्रता, सत्यता, अनुशासन, आत्मनिर्भरता और सभी के लिए सम्मान जैसे मूल्यों पर जोर देती थी। भारतीय ज्ञान परंपरा में शिक्षा प्रणाली ज्ञान, परंपरा और प्रथाएं मानवता को प्रोत्साहित करती थी। भारत के तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, बल्लभी, उज्जैन, काशी आदि विश्व प्रसिद्ध शिक्षा एवं शोध के प्रमुख केंद्र थे तथा यहां कई देशों के शिक्षार्थी ज्ञानार्जन के लिए आते थे।
वैदिक काल में महिलाओं की शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रसिद्धि थी जिसमें मैत्रीय, रितंभरा, अपाला, गार्गी और लोपामुद्रा आदि जैसे नाम प्रमुख थे। बोधायन, कात्यायन, आर्यभट्ट, चरक, कणाद, वाराहमिहिर, नगार्जुन, अगस्त, भर्तृहरि, शंकराचार्य, स्वामी विवेकानंद जैसे अनेक महापुरुषों ने भारत भूमि पर जन्म लेकर अपनी प्रतिभा व मेधा से विश्व में भारतीय ज्ञान परंपरा के समृद्धि हेतु अतुलनीय योगदान दिया है। प्राचीन काल से ही हमारा भारत उच्च मानवीय मूल्यों एवं विशिष्ट वैज्ञानिक परंपराओं का देश रहा है। भारत की ऐसी संस्कृति रही है कि भारत ने दुनिया को अलग-अलग देश या भूभाग के रूप में माना ही नहीं है।
अयं निजः परो वेति,गणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानां तु, वसुधैव कुटुम्बकम्॥
महाउपनिषद के इस सिद्धांत के आधार पर सारा दुनिया को एक परिवार के रूप में मान्यता देने वाला एकमात्र देश भारत है। यह अलग बात है कि पाश्चात्य सभ्यता की आपाधापी में हम भी गलती से यह समझने लगे कि यह सभ्यता भौतिकवाद पर टिकी है, ना कि ज्ञान और अध्यात्म पर।
आज पश्चिमी सभ्यता वाले सभी देश भारतीय संस्कृति और सभ्यता को अपनाने और जानने पर जोर देने लगे हैं। वेदों, उपनिषदों, स्मृतियों और यहां के जीवन शैली को जानने के लिए अपने यहां कई विभाग से लेकर शोध संस्थाओं की भी स्थापना करने लगे हैं। भारत की परंपराओं को आज विश्व अपना रहा है। अब हमें और हमारी भावी पीढ़ियों को भी भारत की प्राचीन मूल्य को यथोचित महत्व देना होगा।
इसके लिए आंतरिक ज्ञान, गुण, शक्ति एवं आदर्शों को ठीक रूप से पहचानना एवं सही दिशा प्रदान करना होगा। प्राचीन भारत ने दर्शन, ध्वन्यात्मक भाषा विज्ञान, अनुष्ठान, व्याकरण, खगोल विज्ञान, अर्थशास्त्र, सांख्य सिद्धांत, तर्क, जीवन विज्ञान, आयुर्वेद, ज्योतिष और संगीत जैसे विभिन्न मानव कल्याणकारी क्षेत्रों में कीर्तिमान स्थापित करके संपूर्ण मानव जाति के उन्नति में अत्यधिक योगदान दिया है। प्राचीन भारतीयों द्वारा आविष्कृत विचारों और तकनीकों का आधुनिक विज्ञान व प्रौद्योगिकी की मूल आधार मजबूत करने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
भारत की ज्ञान परंपरा का अतीत प्राचीन एवं गौरवपूर्ण रहा है। भारत सदैव ज्ञान विज्ञान और अध्यात्म का केंद्र रहा है। भारत के लोग मौत से भी नहीं डरने वाले थे, यहां झूठ बोलने की परंपरा नहीं थी, यहां के ज्ञान की समृद्ध परंपरा विश्व की सर्वश्रेष्ठ परंपरा थी।
केवल एक कौशल को संकीर्णता के साथ देखनेवाले इंग्लिश एजुकेशन के आधार पर एंप्लॉयमेंट ही भारतीय ज्ञान परंपरा को विकृत करने का कार्य किया। हम विदेशी ज्ञान आधारित विश्वविद्यालयों का केवल अंधानुकरण कर कदापि भारतीय जीवन मूल्यों की शिक्षा की कल्पना नहीं कर सकते। भारत की शिक्षा मौलिक परंपराओं से युक्त थी।
भारतीय ज्ञान परंपरा की जड़ें इतनी मजबूत और प्रभावी थी कि लॉर्ड मैकॉले को ये आभास हो गया था कि भारतीयों को पूर्णरूपेण गुलाम बनाना संभव नहीं है। इसलिए उसने शिक्षा व्यवस्था पर प्रहार किया और पुरातन ज्ञान परंपरा के स्थान पर अंग्रेजी शिक्षा की नयी प्रणाली थोप दी।
इसके तहत सम्पूर्ण मानव बनाने वाली या भारत के सांस्कृतिक उत्थान वाली व्यवस्था को रोकने का प्रयास था। पूरी व्यवस्था में येन केन प्रकारेण छद्म अंग्रेजी वाहक तात्कालिक योग्यताओं के बल पर भारतीयों के बीच नौकरी के लिए स्पर्द्धा का निर्माण करना था। 64 कला-कौशल सिखाने के साथ मानवीय गुणों और मूल्यों का समावेश कर पूर्ण मानव की परिकल्पना हमारे सामने गौण हो गए।
हम जिस ज्ञान परंपरा से दुनिया के सिरमौर थे, देश विदेश के कितने विद्यार्थी भारत के विभिन्न केंद्रों में जिस ज्ञान को ग्रहण करने आते थे, जिस ज्ञान से सहज रूप से अपनी समस्याओं को हल करने की क्षमता आती थी, जिस ज्ञान से नेतृत्व करने की क्षमता आती थी और जिसमें घर, परिवार, समाज, राष्ट्र और पूरी दुनिया को एक सूत्र में जोड़कर रखने की बात थी; हम उसे एकपक्षीय बनाकर संकीर्ण लक्ष्य में ढालने के लिए विवश हो गए। सन 1835 की मैकॉले द्वारा प्रदत्त शिक्षा व्यवस्था के कारण उत्पन्न उस रेस में हम आज तक दौड़ रहें हैं।
सबसे बड़ी बात कि नौकरी के योग्य बनानेवाली समझकर हम जिस अंग्रेजी शिक्षा को ढो रहे थे वो आज की चुनौतियों के सामने नौकरी में भी धराशायी हो जाती है। अपने सांस्कृतिक आधार और विरासत को नही समझने के कारण नौकरी में लगे हुए अधिकांश व्यक्ति केवल अनुसरण करते हैं उदाहरण के लिए शिक्षा में पाश्चात्य शोध और पद्धतियां भारतीय शिक्षा के मूल में रहती हैं।
अनुसरण से कोई राष्ट्र पीछे रह सकता है किन्तु रेस में आगे रहने के लिए तो भारत को अपनी संस्कृति, शक्ति और ऊर्जा में सामंजस्य स्थापित कर नवीनता लानी होगी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020 में जैसा लक्ष्य रखा गया है वैसी अर्थात सांस्कृतिक विरासत और संसाधन के ज्ञान के साथ नवीन शोध को पुनर्जीवित करनेवाली शिक्षा व्यवस्था चाहिए। नवाचार तो अंग्रेजी शिक्षा के प्रभाव में जैसे हम भूल ही गए।
अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था से उत्पन्न लोग जो भारतीय संस्कृति का ज्ञान नहीं रखते तो किसी भी क्षेत्र में वे केवल रूटीन कार्य या कॉपी पेस्ट वाले क्लेरिकल कार्य ही कर पाते हैं। इसलिए तो भारतीय ज्ञान परंपरा के कारण उन्नत भारत प्रत्येक क्षेत्र में आगे बढ़ने, ‘मेक इन इण्डिया’ के बल पर आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के लिए आज संघर्ष कर रहा है। चूँकि, पुरातन ज्ञान परंपरा भारतीय संस्कृति से निकली थी इस कारण कई घरों या समाज में सम्पूर्ण मानव की बात समय समय पर होती भी रही।
स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविंद घोष, गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगोर, महात्मा गाँधी आदि कई शिक्षाविदों ने भारतीय ज्ञान परंपरा को ही आदर्श मानकर शिक्षा के लक्ष्य निर्धारित किये। पूर्व की दो शिक्षा नीतियों ने भी कई प्रगतिशील सुझाव दिए किन्तु दुर्भाग्य से एकपक्षीय योग्यता के आधार पर नौकरी देने वाली शिक्षा व्यवस्था को नहीं बदल पाए।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020 एसे बड़े बदलाव की और कदम बढ़ाने की बात करती है जिसको लागु करने में वही शिक्षक सक्षम होंगें जो अपने आधार और भारतीय संस्कृति पर गर्व कर सकें। वैसे शिक्षक जो घर और समाज से भारतीय ज्ञान परंपरा को आत्मसात की हुई भारतीय संस्कृति से भी जुड़े रहे हों और इस कारण पल भर में ‘दृष्टि से सृष्टि’ को समझने की क्षमता रखते हों।
जो छद्म स्वरुप धारण कर विद्वान होने का दंभ न भरें बल्कि प्रत्येक क्षेत्र के विद्यार्थियों में ‘स्थानीय से वैश्विक’ समस्या की पहचान और निराकरण करने की क्षमता का विकास कर सकें। एनईपी- 2020 के ऐसे लक्ष्य के साथ शिक्षा प्राप्त करने के बाद जो पीढ़ी निकलेगी वो नौकरी में जाने के बाद प्रत्येक क्षेत्र में भारत को आत्मनिर्भर बनाने के साथ अग्रणी बनाने का प्रयास करेगी न कि अनुसरण करनेवाला बनाएगी।
बहुविषयी शिक्षा, संपूर्ण विकास, जड़ से जग तक, मानव से मानवता तक की बात राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में समावेशित की गई है। भारतीय ज्ञान परंपरा सनातन गंगा प्रवाह है जिसके स्रोत वेद हैं। समाज, राष्ट्र के कल्याण के लिए अपना सर्वस्व अर्पण समर्पण करना ही भारतीय शिक्षा का चरित्र रहा है।
भारत की ज्ञान परंपरा ईश्वर केंद्रित नहीं अपितु मानव केंद्रित है जो मानव जीवन की सफलता और कल्याण के लिए लोक संग्रह के लिए प्रेरित करती है। हमारी ज्ञान परंपरा संसार के समस्त जीवो के प्रति संवेदनशीलता और सहनशीलता की बात करते हैं क्योंकि हमारे लिए नॉलेज पावर नहीं, प्यूरीफायर है।
विवेक चूड़ामणि में ज्ञान को मोक्ष प्राप्ति का साधन माना गया है। जब अपने आप में दूसरों को देखें तथा दूसरों में अपने आप को देखें। यह स्थिति ही मोक्ष प्राप्ति के मार्ग को प्रशस्त कर सकता है। भारतीय ज्ञान परंपरा की अवधारणा लोक संस्कृति पर आधारित है जिसमे शस्त्र और शास्त्र के ज्ञान को समान महत्व दिया गया है।
सांस्कृतिक रूप से बेशुमार भाषाओं और बोलियों के साथ-साथ शास्त्रीय नृत्य और संगीत, लोक कला की विकसित परंपराएं, मिट्टी के पात्र, मूर्तियां और कांस्य, उम्दा वास्तुकला असाधारण व्यंजन, हर एक प्रकार के शानदार टेक्सटाइल और भी बहुत कुछ यह सब जीवन के सभी क्षेत्रों में हमारी महान विविधता को प्रदर्शित करता है।
विश्व धरोहर के लिए इन समृद्ध विरासत ओं को न केवल भावी पीढ़ी के लिए पोषित और संरक्षित किया जाना चाहिए बल्कि हमारी शिक्षा प्रणाली के जरिए इन्हें बढ़ावा दिया जाना चाहिए और इन्हें नई उपयोग में भी लाना चाहिए। हमारी प्राचीनतम भारतीय ज्ञान विरासत परंपरा एवं शिक्षण पद्धतियों के सनातन मूल्यों को आधुनिक शैक्षिक पद्धति और व्यवस्था में अभी सिंचित करना राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का उद्देश्य है।
भारतीय ज्ञान परंपरा जो वैदिक एवं उपनिषद काल में थी, वह बौद्ध और जैन काल में भी बनी रही, विभिन्न विश्वविद्यालयों की स्थापना और शिक्षा व्यवस्था से स्पष्ट परिलक्षित होता है। लेकिन इसका लोप विगत 200- 300 वर्षों में हुआ है। भारतीय शिक्षा के इतिहास पर दृष्टिपात करने से ज्ञात होता है की प्राचीन काल में शिक्षा का मूल उद्देश्य ज्ञान की प्राप्ति रहा है। इस उद्देश्य के अनुरूप शिक्षा का स्वरूप और विषय निर्धारित किए जाते थे। आज जरूरत है अध्यात्म को विज्ञान से, परमार्थ को व्यवहार से, परंपरा को आधुनिकता से जोड़ते हुए व्यक्तिक, सामाजिक एवं वैश्विक जीवन में समरसता के लिए एकता के सूत्र को खोजने की। आज पूरा विश्व भारतीय ज्ञान परंपरा की आवश्यकता को महसूस कर रहा है।
भारतीय ज्ञान परंपरा जड़ नहीं बल्कि सतत प्रवाह मान है जिसमें विवेक के उपयोग की स्वतंत्रता है। बदलते सामाजिक परिवेश और भारतीय मूल्यों के बीच हमारी शिक्षा व्यवस्था को समावेशी बनाना आवश्यक हो गया है। यह समावेशी व्यवस्था भारतीय प्राचीन ज्ञान परंपरा के बिना नहीं चल सकती है, क्योंकि एक तरफ तो हम आधुनिकता के दौर में झटपट भागे जा रहे हैं। वही हमारी संस्कृति में निहित ज्ञान विज्ञान परंपरा को भूलते जा रहे हैं।
इस अंधानुकरण में हमारी वही स्थिति हो चुकी है जैसा उपनिषदों में कहा गया है कि यदि दृष्टिहीन को रास्ता दिखाने वाला भी दृष्टिहीन हो तो लक्ष्य कैसे प्राप्त हो सकेगा। भारत की सांस्कृतिक विरासत को सुरक्षित रखना देश के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे देश की पहचान बनती है। अवश्य ही नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति भारतीय ज्ञान परंपरा को एक गत्यात्मक तथा व्यवहारिक जीवन प्रणाली के रूप में प्रस्तुत करते हुए भारत के गौरवशाली संस्कृति और परंपरा को पुनर्स्थापित करने में सक्षम हो सकेगा।
लेखक:डॉ.भारद्वाज शुक्ल
सरला बिरला विश्वविद्यालय के फैकल्टी ऑफ कॉमर्स एंड मैनेजमेंट में असिस्टेंट प्रोफेसर एवम शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास झारखंड के प्रचार प्रमुख हैं।