कहते हैं भारत की आजादी का सही अर्थ उनसे पूछिए जो सन 1947 से पहले अंग्रेजों के गुलामी का दंश झेल रहे थे।
वैसे हीं ‘ शिक्षा’ अब कैसे आजाद हुई इस प्रश्न का जवाब उनसे पूछना होगा जो पूर्व में चल रही शिक्षा पद्धति के कारण आज की समस्याओं से घिरे हों। उन बच्चियों से पूछना चाहिए जो पढ़ना तो चाहती थीं किंतु इसलिए नहीं पढ़ पाईं क्योंकि या तो एक साल स्नातक की पढ़ाई के बाद पिता के पास आर्थिक समस्या आ गई थी या शादी के बाद वो किसी दूसरे शहर में चली गई या कोई अन्य कारण। उनसे पूछना होगा जो अपने इंजीनियरिंग की ‘ शिक्षा’ के साथ अपने अंदर के संगीत को भी जीवंत रखना चाहते थे, किंतु नहीं रख पाए।
उनसे पूछना होगा जिनके अंदर दो डिग्री साथ करने की योग्यता तो थी किंतु कर न पाए। उनसे पूछना होगा जिनके पास डिग्री के साथ योग्यता भी है, किंतु उनके डिग्री का मूल्य कभी नहीं हुआ और वो नौकरी के लिए तरसते रहे जैसे कि उन्होंने पढ़ लिख के कोई अपराध कर दिया हो। इनके साथ और बहुत सारी कठिनाइयों के साथ हमारी शिक्षा व्यवस्था तो विदेशी गुलामी के दौर में ही थी।
अब प्रश्न यह उठता है कि ऐसा क्या हुआ है जिससे लगता है कि बेड़ियों में बंधी या बांधनेवाली ‘ शिक्षा’ अब आजाद हो जाएगी या वास्तव में आजाद कर पाएगी अर्थात जो ‘सा विद्या या विमुक्तये’ को चरितार्थ करने में सामर्थवान बन पाएगी।
इस संबंध में राष्ट्रीय शिक्षा नीति -2020 का लागू होना महत्वपूर्ण कदम है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति कई समस्याओं या बाधाओं से जूझते शिक्षाविदों और विद्यार्थियों के लिए एक आशा की किरण बनकर आई है। शिक्षा में बढ़ रही कठिनाईयां और औपचारिकताऐं अब भारत के विकास की बाधक बन रही थी। बढ़ रही जनसंख्या को भी पूर्व की शिक्षा पद्धति के तहत गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के साथ रोजगार मिलने में मुश्किलें हो रही थी। भूमंडलीकरण और वैश्वीकरण के इस दौर में पुरानी व्यवस्था पर जब व्यक्ति शिक्षा ग्रहण करके अपने विकास के लिए ही धक्के खाता था तो देश के विकास की गाथा लिखने में कैसे कामयाब हो सकता।
हर क्षेत्र में गलाकाट प्रतियोगिता चरम पर है और बाजार की मांग जीवन की प्राथमिकताओं को सुनिश्चित कर रही है, ऐसे में शिक्षा में अनुशासन के साथ एक तरह का लचीलापन प्रदान करना, गुणवत्ता में बिना कोई कमी लाए भारत की बड़ी जनसंख्या को शिक्षा प्रदान करना, विभिन्न संस्कृतियों और भारत की विविध क्षेत्रीय मातृभाषाओं में शिक्षा प्रदान करना, भारत के विद्यार्थियों में भारतीयता के साथ आधुनिक कुशलता प्रदान करना या कुल मिलाकर कहें तो कुछ ऐसी हमारी आदर्श गुरुकुल की व्यवस्था में स्मार्ट क्लासेज जैसी आधुनिक तकनीकों से सुसज्जित कक्षा में वो शिक्षा प्रदान करना जिसमें गलाकात प्रतियोगिता करते हुए किसी एक के आगे बढ़ने की गुंजाइश खत्म करके किसी अन्य को सफल बनाने की योजना न बने।
जिस शिक्षा में सर्वांगीण विकास की वास्तविक संभावना हो और जिसकी जैसी आवश्यकता वैसी शिक्षा, जिसमें कुशलता हो उन्हें एक डिग्री के बाद ही दूसरा क्यों करना पड़े, दोनो साथ क्यों नहीं हो सकता। किसी उड़ियाभाषी विद्यार्थी को अंग्रेजी सीखकर ही पाठ्यपुस्तक समझ में क्यों आए? कम से कम शुरुआती शिक्षा मातृभाषा में क्यों नहीं? उच्च शिक्षा या शोध के लिए भी मातृभाषा में प्रयोग के परिणाम या प्रक्रिया को समझनेवाले को अंग्रेजी सीखनी जरूरी क्यों है?
इन सभी समस्याओं को हल करने की जिम्मेदारी अब एनईपी -2020 की है और लागू करनेवाली आईआईटी कानपुर जैसे संस्थान ने जब हिंदी में इंजीनियरिंग की पढ़ाई शुरू की तो अपनी भाषा जाननेवाले लोगों के आशाओं की पूर्ति शुरू हुई। हिंदी में वर्षों से पढ़ा रहे संस्थानों में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी का नाम लिया जाता था और हिंदी भाषियों के लिए प्रोफेशनल कोर्स भी करने का एकमात्र केंद्र दिखता था।
अब भाषा किसी के लिए बाधा न बने इसलिए प्रधानमंत्री ने एनईपी- 2020 के तीन वर्ष पूर्ण होने पर आयोजित ‘शिक्षा समागम’ में घोषणा की कि विधिसम्मत स्वीकृत सभी 22 भाषाओं में लगभग 130 पाठ्यपुस्तकें जल्द ही उपलब्ध होंगी। इसके दो तात्कालिक फायदे हैं जो इस नीति के कारण संभव हुआ है। पहला तो ये कि कक्षा का कोई विद्यार्थी एलियन जैसा अलग थलग न पड़े और अपनी अपनी भाषाओं के साथ सभी बाधा रहित सुविधाजनक अधिगम वातावरण में एक साथ सफलता की ओर बढ़ें और दूसरा ये कि भारत की प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा वैश्वीकरण की चुनौतियों में संप्रेषण आधारित एक ऐसी सशक्त श्रृंखला का निर्माण करे, जिससे सभी में शिक्षा समझ के साथ विकसित हो और सभी चुनौतियों को अवसर में बदल सकें।
इस नीति को शिक्षा को आजाद करनेवाली नीति मूल रूप से इसलिए भी कहा जा रहा है क्योंकि 2020 से ठीक 185 साल पहले 1835 में आई ब्रिटिश शिक्षा नीति का प्रभाव अब तक दिखता रहा है। लॉर्ड मैकाले की शिक्षा अंग्रेजी बोलनेवालों को उच्च और अच्छी नस्ल मानता था, ठीक उसी प्रकार आज भी कुछ विद्वान कहे जानेवाले लोगों के लिए भी पढ़े लिखे का मतलब केवल अंग्रेजी बोलना आता हो, यही समझा जाता है।
इस तरह का आघात उस शिक्षा ने भाषा पर ही नहीं किया था बल्कि पूरी संस्कृति को कम करके देखना, पहले से चली आ रही शिक्षा ने सिखाया था। दुर्भाग्य से सन 1968 और 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीतियां भी इस स्थिति को बदलने में कामयाबी नहीं पाई थीं। इस तरह अब तक की शिक्षा व्यवस्था और शिक्षा पद्धति मैकाले सोच की गुलाम ही थीं।
हमारी शिक्षा व्यवस्था ने हमें भारतीय होने पर गर्व की अनुभूति ना कराते हुए पाश्चात्य विचार और जीवन शैली को केवल श्रेष्ठ और कारगर साबित करने में ही लगी रही , जबकि शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य व्यक्ति के अंदर अंतर्निहित क्षमताओं का विकास करना एवं उनके अंदर चरित्र, ज्ञान आत्मबल के साथ-साथ आत्मविश्वास पैदा करना है। यह भी अतिशयोक्ति नहीं कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के लागू होने के बाद अब जाकर शिक्षा भारत की भारतीयता के साथ आई है।
आजादी का मतलब केवल भौगोलिक एवं औपनिवेशिक रूप से आजाद होना ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक एवं वैचारिक रूप से भी स्वतंत्र एवं मुक्त होना है। आजादी के 75 वर्षों तक शासन-प्रशासन तो भारतीय के हाथों में जरूर रही लेकिन वैचारिक रूप से हम भारतीय चिंतन पद्धति के हिसाब से अपने शिक्षण पद्धति को पूर्ण रुप से लागू करने में और असक्षम ही रहे। इसलिए अब हम यह कह सकते हैं कि एनईपी- 2020 के कारण भारत की शिक्षा अब मैकाले की सोच से आजाद हो रही है। भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों के सपनो के अनुरूप भारतीय चिंतन से युक्त राष्ट्र के उत्थान के लिए समर्पित नागरिकों के निर्माण करने में शिक्षा आत्मनिर्भर एवं उन्मुक्त बन सकेगी।
एनईपी -2020 में सहभागी सभी बौद्धिक योद्धाओं को श्रद्धेय नमन!
लेखक:
डॉ. भारद्वाज शुक्ल
सरला बिरला विश्वविद्यालय रांची के फैकल्टी ऑफ कॉमर्स एंड मैनेजमेंट में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।